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लेखनी प्रतियोगिता -17-Feb-2022

स्त्री 

 

अपने सपनों में से

अपनों के सपनों को बीन-बीन कर निकालती है।

स्त्री कुछ ऐसी ही रची गयी

जिन पे छत टिकी, उन दीवारों को संभालती है।

 

कहाँ गिने हैं दिन अपनी उम्र के उसने

मशगूल गिनने में है वो मुस्कान तुम्हारी।

फर्श पर चलते-चलते ही नाप ली है धरती

तुम्हें पकाने में रही शबरी कच्ची बन नारी

 

तुम फेंक आना अपने गर्व को

जब जाओ उसके पास।

पैरों पे तुम्हें खड़ा करने को

वो इतनी ऊंची, आसमानों को भी खंगालती है।

 

उघाड़े बचपन ने भी तो शाहों के मुकुट ने भी

लिया है आश्रय उसी के दूध भरे वक्षों में।

पायी है जितनी निश्चिंतता गोद में उसकी

कहाँ था आराम उतना स्वर्ण-हीरे के कक्षों में?

 

ईश्वर से निकला था ईश्वर

योग-यज्ञ सम्पूर्ण हुआ।

होके सृजित हर युग में,

करती सृजन समझा जिसे मधुमालती है
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5 Comments

Shrishti pandey

18-Feb-2022 11:01 AM

Nice

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Punam verma

18-Feb-2022 08:57 AM

Nice

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Niraj Pandey

17-Feb-2022 09:40 PM

बहुत ही जबरदस्त👌

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